किताबो में मेरे फ़साने दुन्ढ्ते हैं
नादान् हैं गुज़्ररे ज़माने दुन्ढ्ते हैं
जब वो थे....!! तलाश-ए-ज़िंदगी भी थी
अब तो मौत् के ठिकाने दुन्ढ्ते हैं..!!
कल खुद ही अपनी म्हफ़िल् से निकाला था..!!
आज हुए से दिवाने दुन्ढ्ते हैं...!!
मुसाफ़िर् बे-खबर हैं तेरी आँखों से
तेरे शहर मे मएखाने दुन्ढ्ते हैं
तुझे क्या पता ए सितम् ढाने वाले
हम तो रोने के बहाने दुन्ढ्ते हैं...!!
उनकी आँखों का यु देखो ना "कमाल"
नये तीर् हैं...!! निशाने दुन्ढ्ते हैं..!!
1 Comments:
Ҭhank you foг sharing yoսг thoսghts. I truy appreciate your efforts
and I am waiting for your next write ups thanks once again.
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